शिव महापुराण जय विजय के श्राप की कथा
शिव महापुराण जय विजय के श्राप की कथा है। जब जब हम धर्म से
विमुख जाते है हमे जीवन मे कठिन परिस्थितियों का सामना करना ही पड़ता है। इसलिए
ईश्वर की शरण में रहना आवश्यक है। मानवीय, नैतिक और आध्यात्मिक जीवन मूल्य ही वास्तव में
धर्म है। यह मनुष्य को उसके श्रेष्ठ लक्ष्य की तरफ गति प्रदान करता है। लेकिन दोनों
एक-दूसरे के बाधक तब होते हैं, जब व्यष्टि या समष्टि अपनी मूलधर्म से हटकर दैहिक
और सांप्रदायिक धर्म का अंधानुसरण करने लगते हैं।
जब वे आत्म विवेक तथा मानवता का धर्म छोड़ देते हैं। उन्होंने
कहा कि यदि धर्म का निरादर करोगे, तो धर्म ही तुम्हें नष्ट कर देगा। धर्म की रक्षा
करने से वह धर्म ही तुम्हारी रक्षा करेगा। इसलिए धर्म को कभी नहीं छोडऩा चाहिए।
असल में धर्म, अंत:करण और बाह्य जगत के बीच शांति, सौहार्द्र, सहभागिता, संतुलन व सहअस्तित्व
का सूत्र है। इसलिए दया और करुणा को धर्म का मूल माना गया है। सदगुण और आत्मिक स्वधर्म
मनुष्यों को ऊंचा उठाते हैं। उन्होंने कहा कि धन के नष्ट होने पर कुछ
भी नष्ट नहीं होता, परंतु वृत्त यानी चरित्र के नष्ट होने पर पुरुष
पूर्णरूपेण विनष्ट हो जाता है।